देहलीज़ तो देहलीज़ थी ,
कभी लांग न पाई वो ///
कभी खुले आकाश में ,
उड़ न पाई वो ///
कभी गिरी, कभी उठी ,
कभी सहमी रही वो ///
दो कदम भी अपने कदम से ,
चल न पाई वो ///
करती रही सब के लिए सब कुछ ,
पर दुनिया हे बड़ी शातिर ये समझ न पाई वो ///
ख्वाब बुने थे कुछ ,
सपने देखे थे उसने भी ///
केसे टूटे,केसे बिखरे
ये समझ न पाई वो ///
कभी माँ ...कभी बहन ...
कभी बीवी बनी वो ...
ये दर या वो दर ,
हे कौनसा उसका घर??
ये समझ न पाई वो ///
देहलीज़ तो देहलीज़ थी ,
कभी लांग न पाई वो ///
~विपुल ~
Amazing poem !!!
ReplyDeleteवाकई विपुल ...
ReplyDeleteयह और ही है जिसने सब कुछ सहा , हमारे लिए !
प्रभावशाली कलम के लिए बधाई और शुभकामनायें !
बहुत सुन्दर रचना विपुल.....
ReplyDeleteअनु
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
Super poem.... Touching
ReplyDeleteमार्मिक ... भावपूर्ण रचना .. नारी की की इस दशा के लिए पुरुष ही जिम्मेवार है ... कमाल की अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक रचना..
ReplyDeleteअनुपम प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार
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